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History of Bihar-13
यहाँ पर पर बाबू वीर कुंवर सिंह (Babu Veer Kunwar Singh) पर आधारित एक संक्षिप्त, सारगर्भित और भावपूर्ण हिंदी रूपांतरण प्रस्तुत है
बाबू वीर कुंवर सिंह(Babu Veer Kunwar Singh) (1777–1858)
भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम (1857-58) के महानायक
बाबू वीर कुंवर सिंह भारत के पहले स्वतंत्रता संग्राम (1857) के वीर सेनानायक थे, जिन्होंने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के विरुद्ध बहादुरी से लड़ाई लड़ी। उनका जन्म 1777 में बिहार के भोजपुर जिले के जगदीशपुर रियासत में हुआ था। वे उज्जैनिया राजपूत वंश से संबंधित थे और 1826 में अपने पिता राजा साहबजादा सिंह की मृत्यु के बाद जगदीशपुर के ज़मींदार बने।
प्रारंभिक जीवन और पृष्ठभूमि
कुंवर सिंह का इलाका शाहाबाद जिले के दो परगनों और कई तालुकों में फैला था। वे धार्मिक सहिष्णुता और उदारता के लिए प्रसिद्ध थे और हिन्दू-मुस्लिम एकता में विश्वास रखते थे। उन्होंने कई मंदिरों और दरगाहों के रखरखाव के लिए दान दिया, जिनमें पटना शहर की एक मुस्लिम दरगाह भी शामिल है।
1857 की क्रांति में भूमिका
10 मई 1857 को मेरठ से आरंभ हुआ सिपाही विद्रोह जल्द ही पूरे उत्तर भारत में फैल गया। 25 जुलाई को दानापुर छावनी में भी विद्रोह भड़क उठा। दानापुर के बागी सिपाही आरा की ओर बढ़े और उन्हें कुंवर सिंह व उनके अनुयायियों का साथ मिला। कुंवर सिंह ने बागियों की कमान संभाली और 27 जुलाई को आरा पर कब्जा कर लिया।
ब्रिटिश इंजीनियर मिस्टर बॉयल ने अपने घर को पहले ही किले के रूप में तैयार कर रखा था, जहाँ सभी अंग्रेज शरण लिए हुए थे। कुंवर सिंह के नेतृत्व में बॉयल के घर की घेराबंदी हुई। 29 जुलाई को कैप्टन डनबार के नेतृत्व में 415 ब्रिटिश सैनिकों को आरा भेजा गया, लेकिन कुंवर सिंह की सेना ने उन्हें सोन नदी पार करते ही घात लगाकर हमला कर दिया। इस लड़ाई में अंग्रेजों को करारी हार मिली और केवल 50 सैनिक जीवित लौट सके।
गोरिल्ला युद्ध और लगातार संघर्ष
कुंवर सिंह छापामार युद्ध के माहिर योद्धा थे। छोटे-छोटे दलों में बंटकर उनकी सेना ने अंग्रेजों की रणनीतियों को विफल किया। 2 अगस्त 1857 को मेजर विंसेंट आयर ने आरा पर हमला किया, लेकिन कुंवर सिंह लंबे समय तक लड़ाई नहीं लड़ सके और उन्हें जगदीशपुर छोड़ना पड़ा।
इसके बाद वे कानपुर की लड़ाई में शामिल हुए और दिसंबर 1857 में लखनऊ पहुँचे। वहाँ अवध के नवाब ने उन्हें सम्मानित किया और आज़मगढ़ ज़िले का फरमान दिया। मार्च 1858 में कुंवर सिंह ने आज़मगढ़ पर कब्ज़ा कर लिया। उनकी वीरता और रणनीति से ब्रिटिश अफसर परेशान हो उठे।
22 मार्च को अत्रौलिया (आज़मगढ़ से 23 मील दूर) में उन्होंने कर्नल मिलम की अगुवाई वाली ब्रिटिश सेना को पराजित किया और उन्हें पीछे हटने पर मजबूर कर दिया। इस जीत से अंग्रेजों की चिंता और बढ़ गई और गवर्नर जनरल लॉर्ड कैनिंग को स्थिति को नियंत्रित करने के लिए तत्काल कदम उठाने पड़े।
जगदीशपुर की वापसी और अंतिम युद्ध
गंगा नदी पार कर कुंवर सिंह(Kunwar Singh) ने जगदीशपुर की ओर कूच किया। 23 अप्रैल 1858 को उन्होंने कैप्टन ली ग्रांट के नेतृत्व में आई ब्रिटिश सेना को करारी शिकस्त दी और अपने किले में फिर से प्रवेश किया। कहा जाता है कि इस युद्ध में जब एक गोली उनके हाथ में लगी तो उन्होंने साहसपूर्वक अपनी तलवार से वह हाथ काट दिया और गंगा में अर्पित कर दिया।
इस वीरता भरे समर्पण के तीन दिन बाद, 26 अप्रैल 1858 को बाबू वीर कुंवर सिंह का निधन हो गया। परंतु उनकी मृत्यु के बाद भी उनके नेतृत्व में प्रेरित क्रांतिकारियों द्वारा अंग्रेजों के विरुद्ध गुरिल्ला युद्ध चलता रहा।
स्मृति और विरासत
ब्रिटिश इतिहासकार कर्नल जी. बी. मलेसन ने अपनी पुस्तक “द इंडियन म्युटिनी ऑफ 1857” में लिखा, “इस वृद्ध सेनानी ने अंग्रेजों से मिले अपमानों का पूर्ण प्रतिशोध ले लिया।” कुंवर सिंह न केवल एक महान योद्धा थे, बल्कि समाजसेवी और धर्मनिरपेक्ष व्यक्तित्व भी थे।
भारत सरकार ने उनकी स्मृति में 23 अप्रैल 1966 को एक डाक टिकट जारी किया। वे भोजपुर क्षेत्र के लोकनायक बन गए हैं, जिनकी गाथाएं आज भी लोकगीतों, कथाओं और स्मारकों में जीवित हैं।
निष्कर्ष
बाबू वीर कुंवर सिंह 1857 की क्रांति के सबसे प्रमुख और प्रेरणादायक सेनानायकों में से एक थे। अपनी वृद्धावस्था के बावजूद उन्होंने जो साहस, नेतृत्व और रणनीति दिखाई, वह आज भी युवाओं के लिए प्रेरणा स्रोत है। उनका जीवन स्वतंत्रता, स्वाभिमान और मातृभूमि के लिए बलिदान की अमर मिसाल है।
